सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br />संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम। <br />जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृंत से झरकर कुसुम। <br />जो लक्ष्य भूल रुका नहीं <br />जो हार देख झुका नहीं <br />जिसने प्रणय पाथेय माना जीत उसकी ही रही। <br />सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br />ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे। <br />जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे। <br />जो भी परिस्थितियाँ मिलें <br />काँटे चुभें कलियाँ खिलें <br />हारे नहीं इंसान, है जीवन का संदेश यही। <br />सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br />हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को। <br />यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मंझधार को। <br />जो साथ फूलों के चले <br />जो ढ़ाल पाते ही ढ़ले <br />यह ज़िंदगी क्या ज़िंदगी जो सिर्फ़ पानी सी बही। <br />सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br />संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित। <br />पर झाँककर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित। <br />जब तक बँधी है चेतना <br />जब तक हृदय दुख से घना <br />तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही। <br />सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br />अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना। <br />अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना। <br />आकाश सुख देगा नहीं <br />धरती पसीजी है कहीं? <br />जिससे हृदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही। <br />सच हम नहीं, सच तुम नहीं <br />सच है महज़ संघर्ष ही। <br /> <br /> - जगदीश गुप्त