क्या दो साल पुराने भीमा-कोरेगांव केस के एनआईए के हाथ में आने के पीछे कोई डिजाइन है?राज्य सरकार के कामकाज में केंद्र की दखलंदाजी है?<br /><br />महाराष्ट्र में सरकार चला रहीं कांग्रेस और एनसीपी ने तो इसे बाकायदा ‘साजिश’ करार दिया है. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने इस मसले को ‘अर्बन-नक्सल’ नैरेटिव से जोड़ते हुए ट्वीट किया.मसले को तफ्सील से समझाने के लिए क्रोनोलॉजी समझाते हैं.एक जनवरी, 2018 को पुणे जिले के छोटे से गांव भीमा-कोरेगांव में एक जश्न के दौरान दलित और मराठा समुदाय के बीच हिंसा हुई.पुलिस ने कई आरोपियों के संबंध नक्सलियों से होने का आरोप लगाया.<br />28 अगस्त, 2019 को पुणे पुलिस ने देश के अलग-अलग हिस्सों में छापे मारकर कई गिरफ्तारियां की. कहा गया कि प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रची जा रही थी.<br />इस आरोप को एफआईआर में नहीं डाला गया. ये वो लोग थे जिनकी ब्राडिंग ‘अर्बन-नक्सल’ के तौर पर की जा चुकी थी.<br /><br />लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि भीमा-कोरेगांव केस की चार्जशीट बीजेपी सरकार के वक्त फाइल हुई. कांग्रेस-एनसीपी की महाविकास अघाड़ी सरकार ने उसकी समीक्षा की बात कही और दो साल से चुप बैठी केंद्र सरकार ने केस एनआईए को सौंप दिया. क्या ये महज इत्तेफाक है?<br />साल 2008 में मुंबई हमले के बाद बनी एनआईए की एक स्वतंत्र एजेंसी के तौर पर छवि कई मौकों पर सवालों के घेरे में रही है और इस पर केंद्र सरकार के ‘पिंजरे का तोता’ होने के आरोप लगते रहे हैं.<br />कानून-व्यवस्था राज्य सरकार के दायरे में आता है और उसकी सहमति के बिना किसी अहम केस को केंद्रीय एजेंसी को सौंप देना क्या संघीय व्यवस्था के खिलाफ नहीं है?
