वीडियो जानकारी:<br />पार से उपहार शिविर, 15.02.20, ऋषिकेश, उत्तराखंड, भारत <br /><br />प्रसंग:<br />अन्तर्हितश्च स्थिरजङ्गमेषु ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन।<br />व्याप्त्याऽव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत्॥<br /><br />भावार्थ: राजन, जितने भी घट-मठ पदार्थ हैं, चाहे वो चल हों, अचल हों, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिछिन्न है । वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं उनमें आत्मा रूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है । साधक को चाहिए कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंग रूप से देखे । वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है । इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिए । <br />~अवधूत गीता (अध्याय १, श्लोक ४२)<br /><br />~ आत्मा आकाशवत कैसे है?<br />~ आत्मा की अनंतता कैसे मिले?<br />~ अहम् की क्षुद्रता पर कैसे ध्यान दे?<br /><br />संगीत: मिलिंद दाते <br />~~~~~<br />